Opinion

पर्यावरण दिवस : सिकुड़ जा रहे हैं धरती के फेफड़े

पीपल बरगद, नीम, आम और अशोक ऑक्सीजन के सबसे बड़े स्रोत हैं। हमारी संस्कृति में पंचवटी लगाने की अवधारणा थी। यही पांचों वृक्ष मिलकर पंचवटी कहलाते हैं। दुर्भाग्य से आज इन वृक्षों की संख्या लगातार कम होती जा रही है और इनका स्थान यूकेलिप्टिस एवं पापुलर के पेड़ों ने ले लिया है जो चिंताजनक है।

विश्व पर्यावरण दिवस 5 जून पर विशेष

5 जून को पूरी दुनिया में “विश्व पर्यावरण दिवस” मनाया जाता है। वर्ष 2021 के पर्यावरण दिवस की थीम है “पारिस्थितिकी तंत्र की बहाली” और इस बार का मेजबान देश है पाकिस्तान। पारिस्थितिकी से अभिप्राय है कि हम इसके विभिन्न घटकों जैसे वृ़क्ष, वनस्पति, तालाब, पोखर, कुएं, बावड़ी आदि को संरक्षण प्रदान करें। पारिस्थितिकी के विभिन्न घटकों में वृद्धि करके ही हम पर्यावरण के संतुलन को बनाए रखने के साथ ही उसे प्रदूषित होने से बचा सकते हैं।

अमेरिकी वैज्ञानिक ओडम ने पारिस्थितिकी को परिभाषित करते हुए लिखा है, “पारिस्थितिकी मानव एवं वातावरण की समग्रता का विज्ञान है।” इस प्रकार हम कह सकते हैं कि पारिस्थितिकी तत्र एक क्रियाशील इकाई होती है जिसमें जीव और उसके अजैव पर्यावरण एक-दूसरे पर व्यापक प्रभाव डालते हैं और वे भी पृथ्वी पर जीवन का अस्तित्व बनाए रखने के लिए आवश्यक हैं। कोई भी जीव बिना पर्यावरण के जीवित नहीं रह सकता। उसका अपना एक पारिस्थितिकी तंत्र होता है। इस प्रकार पर्यावरण सम्पूर्ण बाह्य पारिस्थितियों और उसका जीवधारियों पर पड़ने वाला प्रभाव है जो जैव जगत के चक्र का नियामक है।

उपरोक्त तथ्यों को देखते हुए यह कहा जा सकता है कि पर्यावरण के संरक्षण के बिना पृथ्वी पर मानव और जीवधारियों का अस्तित्व संकट में पड़ जाएगा। लेकिन, अपने तकनीकी ज्ञान और प्रौद्योगिकी के मद में चूर मानव प्राकृतिक संसाधनों का लगातार अंधाधुंध दोहन कर रहा है जिससे पर्यावरण प्रदूषण का गम्भीर संकट हमारे सामने मुंह बाएं खड़ा है।

अपनी स्वार्थ सिद्धि के लिए मानव ने जैसे वृक्षों की अंधाधुंध कटाई की ठान रखी है। इस कारण पृथ्वी पर वृक्षों की संख्या धीरे-धीरे कम होती जा रही है। वृक्ष पृथ्वी के फेफड़े कहलाते हैं परंतु मानव की गर्हित सोच के कारण पृथ्वी के ये फेफड़े लगातार सिकुड़ते जा रहे हैं जो गम्भीर चिंता का विषय है।

प्रसिद्ध पर्यावरण विज्ञानी माडवेल स्मिथ के अनुसार “जिस प्रकार मानव शरीर की सुरक्षा के लिए उसकी कम से कम एक तिहाई त्वचा का सुरक्षित रहना आवश्यक है उसी प्रकार पृथ्वी के अस्तित्व की रक्षा के लिए उसके कम से एक तिहाई भाग पर वनों का होना आवश्यक है।” इस प्रकार हम देखते हैं कि पर्यावरण संरक्षण के लिए देश के कम से कम 33 प्रतिशत क्षेत्रफल में वनों का होना आवश्यक है। दुर्भाग्यवश हमारे देश में केवल 22 प्रतिशत भू-भाग पर वन हैं। देश में वनों का वितरण भी बहुत असमान है। देश के अधिकतर वन मिजोरम, नागालैंड, अरुणाचल प्रदेश, उत्तराखंड हिमाचल प्रदेश, मध्य प्रदेश, जम्मू कश्मीर आदि प्रांतों में हैं। जो वन हैं भी, उनकी लगातार कटाई हो रही है जो पर्यावरण संरक्षण की परिस्थतियों को और जटिल बना रही है।

देश में वनों के क्षेत्रफल को बढ़ाने के लिए 31 मई 1954, 7 दिसम्बर 1988 और 12 मई 2002 को राष्ट्रीय वन नीति बनाई गई। इसका उद्देश्य देश में वनों का क्षेत्रफल बढ़ाकर पर्यावरण स्थिरता कायम करना था लेकिन अपेक्षति जन सहयोग के अभाव में इसको अमली जामा नहीं पहनाया जा सका।

वृक्ष पर्यावरण के सजग प्रहरी होते हैं। वे हवा में तैर रहे मोनोऑक्साइड एवं कार्बन डाइऑक्साइड के कणों को सोखकर पर्यावरण को शुद्ध बनाने में बहुत महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। वृक्षों की घनी एवं शीतल छाया धरती के तापमान को बढ़ने से रोकती है। पीपल, नीम, बरगद, पाकड़, आम, अशोक, गूलर एवं जामुन के पेड़ हमारे पर्यावरण के लिए बहुत उपयोगी हैं।

पंचवटी पार्क, लखनऊ।

पीपल बरगद, नीम, आम और अशोक ऑक्सीजन के सबसे बड़े स्रोत हैं। हमारी संस्कृति में पंचवटी लगाने की अवधारणा थी। यही पांचों वृक्ष मिलकर पंचवटी कहलाते हैं। दुर्भाग्य से आज इन वृक्षों की संख्या लगातार कम होती जा रही है और इनका स्थान यूकेलिप्टिस एवं पापुलर के पेड़ों ने ले लिया है जो चिंताजनक है।

नए वृक्षों को लगाकर और उन्हें सुरक्षित रखकर तथा शहरों में हरियाली बढ़ाकर हम पर्यावरण के संतुलन को बनाये रख सकते हैं। शुद्ध पेयजल की उपलब्धता के लिए जल के प्राकृतिक स्रोतों जैसे- नदी, झील, तालाब, पोखर, कुएं, बावडी आदि की सफाई कर उन्हें संरक्षित करना आवश्यक है।

एक आंकलन के अनुसार एक व्यक्ति अपने जीवन काल में कम से कम 11 वृक्षों से निर्गत आक्सीजन का प्रयोग श्वांस लेने के लिए करता है इसलिए प्रत्येक व्यक्ति को अपने जीवन में कम से कम 11 वृक्ष लगाने चाहिए जिससे पर्यावरण का संतुलन बना रहे। हम सभी मिलकर वृक्ष लगाने और उन्हें संरक्षण प्रदान करने का संकल्प लें, यही पर्यावरण दिवस मनाने की सबसे बड़ी सार्थकता होगी।

सुरेश बाबू मिश्रा

(लेखक भूगोल के जानकार और सेवानिवृत्त प्रधानाचार्य हैं)

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