भगवान परशुराम त्रेता युग में एक ब्राह्मण ऋषि के यहां जन्मे थे। जमदग्नि ऋषि द्वारा सम्पन्न एक विशाल यज्ञ के प्रसाद के रूप में उनके यहां परशुराम का जन्म हुआ था। परशुराम को विष्णु भगवान का छठा अवतार माना जाता है। वे महान बलशाली एवं पराक्रमी थे। उनकी मां का नाम रेणुका था। ऋषि जमदग्नि मध्य प्रदेश के इन्दौर जिले में माना पर्वत पर आश्रम बनाकर रहते थे। परशुराम का जन्म इसी आश्रम में वैशाख शुक्ल तृतीया को हुआ था। नामकरण संस्कार के समय पितामह भृगु ऋषि द्वारा उनका नाम राम रखा गया।
उन्होंने अपनी प्रारम्भिक शिक्षा महर्षि विश्वामित्र एवं महर्षि ऋचीक के आश्रम में रहकर प्राप्त की। महर्षि ऋचीक ने उन्हें शारंग नामक दिव्य वैष्णव धनुष प्रदान किया। वे महर्षि कश्यप के भी सानिध्य में रहे उनके सेवाभाव एवं दिव्य प्रतिभा से प्रभावित होकर महर्षि कश्यप ने उन्हें अविनाशी वैष्णव मन्त्र प्रदान किया।
परशुराम भगवान शिव को अपना आराध्य देव मानते थे। उन्होंने कैलाश श्रंग पर्वत पर भगवान शिव की कठोर साधना की। उनकी तपस्या से प्रसन्न होकर भगवान शिव ने उन्हें विशिष्ट दिव्यास्त्र परशु प्रदान किया। शिवजी द्वारा प्रदान किए इस परशु को सदैव धारण किए रहने के कारण वे परशुराम कहलाए। प्रचलित भाषा में इस परशु को ही फरसा कहते हैं। वे महान बलशाली थे यही परशु अर्थात् फरसा उनका प्रमुख अस्त्र था। इसके अतिरिक्त वे धनुर्विद्या में भी बहुत निपुण थे।
वे धरती पर वैदिक संस्कृति का प्रचार-प्रसार करना चाहते थे। कहा जाता है कि भारत के अधिकांश गाँव भगवान परशुराम द्वारा ही बसाए गये हैं। एक पौराणिक कथा के अनुसार भगवान परशुराम ने वाण चलाकर गुजरात से लेकर केरल तक समुद्र को पीछे धकेलते हुए नई भूमि का निर्माण किया। इसी कारण कोंकण, गोवा केरल और गुजरात में भगवान परशुराम की पूजा-अर्चना बड़े श्रद्धा के साथ की जाती है।
परशुराम महान पितृभक्त थे। श्रीमदभागवत में वर्णित कथा के अनुसार एक दिन परशुराम की माँ रेणुका यज्ञ के लिए सरोवर से जल लेने गईं। वहां उस समय सरोवर के पास वन में चित्ररथ नामक गांधर्व नृत्य कर रहा था। उसने अपनी सम्मोहन विद्या से ऋषि पत्नी रेणुका को अपनी ओर आसक्त कर लिया। उसके सम्मोहन में बंधी रेणुका उसके साथ नृत्य करने लगीं। वे यह भी भूल गईं कि उन्हें यज्ञ के लिए जल लेकर जाना है। जब काफी देर हो गई तो जमदग्नि ऋषि को चिन्ता हुई और वे अपनी पत्नी रेणुका की खोज खबर लेने सरोवर की ओर चल दिए। वहां पहुंचकर जब उन्होंने रेणुका को गांधर्व के साथ नृत्य करते देखा तो उन्हें बहुत क्रोध आया। आश्रम लौटकर ऋषि ने अपने पुत्रों को अपनी माँ का सिर काटने का आदेश दिया, मगर उनके सभी पुत्रों ने माँ का सिर काटने से इन्कार कर दिया। परशुराम भी अपनी माँ से बहुत अधिक प्रेम करते थे मगर अपने पिता की आज्ञा उनके लिए सर्वोपरि थी। इसलिए वे अपना फरसा लेकर माँ का सिर काटने के लिए सरोवर की ओर चल दिए। जब उनके भाइयों ने इसका विरोध किया तो उन्होंने उन सबका सिर भी अपने फरसा से काट डाला। बाद में सरोवर पहुंचकर उन्होंने अपने फरसे के एक ही बार में माँ का सिर धड़ से अलग कर दिया। परशु राम की इस पितृभक्ति को देखकर ऋषि जमदग्नि बहुत प्रसन्न हुए उन्होंने परशुराम से कहा वह जो चाहे वरदान मांग ले। परशुराम ने वरदान मांगा कि आप मेरी माँ और भाइयों को जीवित कर दें और उन्हें क्षमा कर दें। ऋषि ने सभी को जीवित कर क्षमा कर दिया।
जमदग्नि ऋषि के पास एक कपिला नाम की कामधेनु गाय थी। कामधेनु सभी इच्छित फलों को पूरा करने वाली थी। एक बार हैहय क्षत्री वंश के राजा सहस्रार्जुन आखेट करते हुए सेना सहित ऋषि जमदग्नि के आश्रम में पधारे। सहस्रार्जुन बहुत बलशाली थे। उनके एक हजार भुजाएं थीं इसलिए उन्हें सहस्राबाहु भी कहा जाता था। जमदग्नि ऋषि ने आदरपूर्वक राजा और उनकी सेना को आश्रम में बैठाया। ऋषि पत्नी ने कामधेनु से सभी के लिए स्वादिष्ट भोजन की याचना की। एक ऋषि के आश्रम में इतने स्वादिष्ट भोजन की व्यवस्था देख राजा चकित हो गये। जब उन्हें पता चला कि कामधेनु सभी इच्छित वस्तुओं को प्रदान करने वाली है तो उनके मन में लालच आ गया। उन्होंने ऋषि से कामधेनु गाय मांगी। ऋषि जमदग्नि अपनी कपिला कामधेनु को प्राणों से भी अधिक प्रेम करते थे इसलिए उन्होंने कामधेनु देने से इन्कार कर दिया। राजा बलपूर्वक कामधेनु को आश्रम से ले जाने लगे। यह देखकर परशुराम को क्रोध आ गया। उन्होंने राजा को युद्ध की चुनौती दी। दोनों में द्वन्द्व युद्ध होने लगा। परशुराम ने अपने फरसे से राजा सहस्रार्जुन की हजार भुजाओं को काट डाला और उनका सिर धड़ से अलग कर दिया।
जब सेना ने राजधानी लौटकर राजा के पुत्रों को यह समाचार सुनाया तो वे बहुत क्रोधित हो उठे। एकदिन परशुराम की अनुपस्थिति में आश्रम जाकर ध्यानावस्था में बैठे हुए ऋषि जमदग्नि को उन्होंने मार डाला। उनकी पत्नी रेणुका अपने पति की चिता के साथ जलकर सती हो गईं। जब परशुराम आश्रम लौटे और उन्हें अपने पिता के वध और माता के सती होने का समाचार मिला तो वे क्रोध से थर-थर कांपने लगे। उन्होंने पृथ्वी से हैहयवंशी क्षत्रियों के समूल विनाश की प्रतिज्ञा की।
कुपित परशुराम ने पूरे वेग से हैहय क्षत्री वंश की राजधानी महिष्मती नगरी पर आक्रमण किया और राजा के सारे पुत्रों एवं सेनानायकों के सिर अपने फरसे से काट डाले। उन्होंने महिष्मती नगरी पर अपना अधिकार कर लिया। उन्होंने सहस्रबाहु के पुत्रों के रक्त से अपने पिता का श्राद्ध किया।
इस सबसे भी उनका प्रतिशोध पूरा नहीं हुआ। क्रोध के आवेग में उन्होंने इक्कीस बार पृथ्वी से हैहय क्षत्री वंश के क्षत्रियों का समूल विनाश किया। यही नहीं उन्होंने उनके रक्त से पांच सरोवर भर डाले। बाद में अपने गुरु महर्षि ऋचीक के समझाने पर उनका क्रोध शान्त हुआ। पश्चाताप स्वरुप उन्होंने अश्वमेध यज्ञ किया और पूरी पृथ्वी महर्षि कश्यप को दान कर दी। बाद में उन्होंने देवराज इन्द्र के समक्ष अपने शस्त्र त्याग दिए।
वे महान बलशाली एवं पराक्रमी थे। फरसा उनका अमोघ अस्त्र था। भीष्म पितामह, आचार्य द्रोण और कर्ण को शस्त्र विद्या उन्होंने ही सिखलाई थी। ब्राह्मण कुल में जन्म लेने के कारण उन्हें ब्राह्मणों का आराध्य देव एवं ब्राह्मण कुल गौरव माना जाता है।
(सेवानिवृत्त प्रधानाचार्य)
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