मेजर ध्यानचंद : जिनकी हॉकी स्टिक के इशारों पर नाचती थी गेंद

– राष्ट्रीय खेल दिवस 20 अगस्त पर विशेष –

मेजर ध्यानचंद ने भारतीय हॉकी के परचम को पूरे विश्व में फहराया। वे हॉकी के एक बेहतरीन खिलाड़ी थे जिन्होंने भारतीय हॉकी को नई ऊंचाइयों तक पहुंचाया। उन्होने अपनी असाधारण खेल प्रतिभा के बल पर भारत को तीन बार ओलंपिक खेलों में स्वार्ण पदक विजेता बनाया। वह जब मैदानी गोल करते थे तो दर्शक वाह-वाह कर उठते थे। इसलिए उन्हें हॉकी का जादूगर कहा जाता है। उनका जन्मदिन 29 अगस्त देश में राष्ट्रीय खेल दिवस के रूप में मनाया जाता है ।

ध्यानचंद ने आखिरी अंतराष्ट्रीय मैच 1948 में खेला। अपने अंतराष्ट्रीय करियर के दौरान वे 400 से अधिक गोल कर चुके थे। भारत सरकार ने उन्हें अब तीसरा और उनके दौर में दूसरे स्थान का नागरिक सम्मान पद्मभूषण 1956 में प्रदान किया। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने हाल ही में घोषणा की है कि देश का सबसे बड़ा खेल पुरस्कार राजीव गांधी खेल रत्न अब मेजर ध्यानचंद के नाम पर होगा।

ध्यानचंद का जन्म 29 अगस्त 1905 को प्रयागराज (तत्कालीन इलाहाबाद) में हुआ था। ध्यानचंद भारत के एक और बड़े हॉकी खिलाड़ी रूप सिंह के बड़े  भाई थे। उनके पिता समेश्वर सिंह ब्रिटिश इंडियन आर्मी में थे और सेना के लिए हॉकी खेलते थे। ध्यानचंद के एक और भाई का नाम मूल सिंह था। पिता के बार-बार होने वाले स्थानांतरण के चलते ध्यानचंद को कक्षा छह के बाद पढाई छोड़नी पड़ी। उनका परिवार आखिर में उत्तर प्रदेश के झांसी में बस गया।

बचपन में ध्यानचंद का हॉकी पर कोई ध्यान नहीं था और पहलवानी पसंद थी। ब्रिटिश इंडियन आर्मी में भर्ती होने के समय उनकी उम्र महज 16 साल थी। वह रात में खेल का अभ्यास करते थे और चांद के निकलने का इंतजार भी क्योंकि चांद निकलने के बाद ही उन्हें दिखाई देने लगता था। उस दौर में बाहर बिजली की रोशनी नहीं हुआ करती थी। चांद के इंतजार के कारण ही उनके दोस्त उन्हें चंद पुकारने लगे और उनका नाम ध्यानचंद पड़ गया।

1922 से 1926 के बीच ध्यानचंद ने सिर्फ सेना हॉकी और रेजिमेंट गेम्स खेले। बाद में उन्हें सेना की उस टीम के लिए चुन लिया गया जिसे न्यूजीलैंड जाकर खेलना था। इस टीम ने 18 मैच जीते, 2 ड्रा रहे और एक मैच में पराजय मिली। मैच देखने आए सभी दर्शक इस टीम के प्रशंसक हो गए। भारत लौटते ही ध्यानचंद को लांसनायक बना दिया गया था।

इसी बीच इंडियन हॉकी फेडरेशन ने 1928 के एमस्टरडैम ओलंपिक के लिए बढिया टीम तैयार करना शुरू कर दिया। 1925 में कई राज्यों के बीच टूर्नामेंट रखा गया। पांच टीमों ने इसमें भाग लिया जिसमें सेना ने ध्यानचंद को युनाइटेड प्रोविंस नाम की टीम की ओर से खेलने की इजाजत दी। इस टूर्नामेंट में शानदार प्रदर्शन करने पर ध्यानचंद को ओलंपिक के लिए भारतीय टीम में चुन लिया गया। 

एमस्टरडैम ओलंपिक में भारतीय टीम के पहले ही मैच में ध्यानचंद ने ऑस्ट्रिया के खिलाफ 3 गोल दागे। अगले दिन भारत ने बेल्जियम को 9-0 से हराया हालांकि ध्यानचंद ने सिर्फ एक गोल दागा था। अगला मैच भारत ने डेनमार्क के खिलाफ जीता जिसमें कुल 5 में से 3 गोल ध्यानचंद ने किए। दो दिन बाद ध्यानचंद ने स्विट्जर्लैंड के खिलाफ 4 गोल किए और भारतीय टीम को जीत दिलाई।

फाइनल मैच 26 मई को नीदरर्लैंड के खिलाफ था। भारतीय टीम के अच्छे खिलाड़ी फिरोज खान, अली शौकत और खेर सिंह बीमार थे। यहां तक की ध्यानचंद का भी स्वास्थ्य खराब था। इसके बावजूद भारत यह मैच 3-0 से जीतने में सफल रहा। इसमें ध्यानचंद ने 2 गोल किए। इस तरह भारत ने हॉकी का पहला ओलंपिक स्वर्ण पदक जीता। ध्यानचंद इस ओलंपिक में सबसे अधिक गोल करने वाले खिलाड़ी थे। एक अखबार ने ध्यानचंद के लिए लिखा, “ये हॉकी का मैच नहीं था बल्कि जादू था। ध्यानचंद असलियत में हॉकी के जादूगर हैं।”

1951 में कैप्टन ध्यानचंद के सम्मान में नेशनल स्टेडियम में ध्यानचंद टूर्नामेंट रखा गया। कई सफल टूर्नामेंटों में हिस्सा लेने के बाद 1956 में 51 वर्ष की उम्र में कैप्टन ध्यानचंद सेना से मेजर के पद से रिटायर हो गए। भारत सरकार ने उन्हें इसी वर्ष पद्मभूषण से सम्मानित किया।

इसके बाद वह राजस्थान के माउंटआबू में हॉकी कोच के रूप में कार्य करते रहे। इसके बाद पाटियाला के नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ स्पोर्ट्स में चीफ हॉकी कोच बनाए गए। यहां कई साल तक वे इस पद पर रहे। अपने जीवन के आखिरी दिनों में ध्यानचंद अपने गृहनगर झांसी (उत्तर प्रदेश) में रहे। तीन दिसंबर 1979 ऑल इंडिया इंस्टीट्यूट ऑफ मेडिकल साइंस (एम्स) दिल्ली में उनका स्वर्गवास हो गया। उनकी रेजीमेंट पंजाब रेजीमेंट ने पूरे सम्मान के साथ उनका अंतिम संस्कार किया।

यह अतयंत प्रसन्नता का विषय है कि वर्तमान केंद्र सरकार ने खेल रत्न सम्मान मेजर ध्यानचंद के नाम पर देने कीं घोषणा की है। सरकार कीं इस अभूतपूर्व पहल से मेजर ध्यानचंद सदैव खिलाडियों के प्रेरणा स्रोत बने रहेंगे और उनका नाम सदैव अमर रहेगा।

सुरेश बाबू मिश्र

(सेवानिवृत प्रधानाचार्य)

gajendra tripathi

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