ये हैं फांसी की सजा देने के प्रावधान और अपील की प्रक्रिया

नई दिल्ली। याकूब मेमन को आज दी गई फांसी महाराष्ट्र में पाकिस्तानी आतंकी अजमल आमिर कसाब को 26/11 आतंकी हमले के लिए मौत की सजा देने के बाद पहली फांसी है। 1993 के बम धमाकों में 257 लोगों की मौत हुई थी और 700 से ज्यादा जख्मी हुए थे। 1993 मुंबई हमले के दोषी याकूब मेमन को आखिरकार 22 साल बाद गुरुवार सुबह फांसी दे दी गई। हालांकि फांसी से पहले याकूब ने कई राहत पाने की  कानूनी कोशिश , उसकी दया याचिका और  क्यूरेटीव पेटीशन की भी याचिका खारिज हो गई थी। अंतत: उसे फांसी की सजा हो गई।

इससे पहले तीन मई 2010 को मुंबई की एक विशेष अदालत ने कसाब को हत्या और भारत के खिलाफ जंग छेड़ने का दोषी ठहराया था और तीन दिन बाद उसे मौत की सजा सुनाई थी। अदालत के फैसले को 21 फरवरी 2011 को बंबई उच्च न्यायालय ने सही ठहराया था। इसके बाद उच्चतम न्यायालय ने 29 अगस्त 2012 को इस फैसले पर अपनी मोहर लगा दी थी। कसाब की दया याचिका को पांच नवंबर 2012 को राष्ट्रपति ने खारिज कर दिया था और उसे 21 नवंबर 2012 को पुणे की यरवदा जेल में फांसी दे गई थी।

फांसी की सजा दुर्लभ  है कानूनी प्रावधानों में:-

फांसी की सजा देश के कानूनी प्रावधानों में दुर्लभ है। भारत में सबसे दुर्लभ मामलों में (रेयरेस्ट ऑफ द रेयर ) मौत या फांसी की सजा दी जाती है। कोर्ट में जब मुकदमे की सुनवाई होती है तब जज को फैसले में यह लिखना पड़ता है कि मामले को दुर्लभतम (रेयरेस्ट ऑफ द रेयर) क्यों माना जा रहा है। किसी भी अपराधी को मौत की सजा तभी मिल सकती है जब सेशन कोर्ट भी उस मामले को ‘द रेयरेस्ट ऑफ द रेयर’ माने और उसके बाद हाईकोर्ट भी मामले को वैसा ही मानकर सजा दे। क्योंकि इस सजा का आधार तभी तय होता है जब दोषी या अपराधी का गुनाह क्रूर या फिर बेहद घिनौना हो और वह दुर्लभतम श्रेणी में आता हो।

सेशन कोर्ट में जब फांसी की सजा सुनाई गई हो तो उक्त अपराधी के खिलाफ हाईकोर्ट में अपील करने को रिफ्रेंस कहते हैं। रिफ्रेंस के दौरान दो जज सभी सबूतों को दोबारा से देखते हैं। अगर दोनों जज मानते हैं कि यह एक ऐसा जुर्म है जिसके लिए मृत्युदंड (फांसी) के अलावा कोई दूसरी सजा काफी नहीं है, तभी मौत की सजा सुनाई जाती है। इस स्थिति में अभियुक्त हाईकोर्ट के फैसले के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट में भी अपील कर सकता है।

राष्ट्रपति को मृत्युदंड की सजा माफ कर सकते हैं। साथ ही जिस राज्य की कोर्ट ने उक्त अपराधी या दोषी को मौत की सजा सुनाई है वहां के राज्यपाल के पास भी माफी देने का कानूनी अधिकार होता है। साथ ही देश की कानूनी व्यवस्था के तहत फांसी उसी व्यक्ति को दी जा सकती है जो पूरी तरह से सेहतमंद हो। जो दिमागी रूप से ठीक नहीं हो उसे मौत की सजा देना सही नहीं माना जाता। सुप्रीम कोर्ट ने भी कहा है कि जिस इंसान का दिमाग सामान्य नहीं है उसे मौत की सजा देना क्रूरता है।

एजेन्सी

 

vandna

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