23 जुलाई भारत के इतिहास का एक गौरवशाली दिन है। आज के दिन भारत माता के दो महान सपूतों का जन्म हुआ था जिन्होंने देश की स्वतंत्रता में बहुत महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। पहले थे, “स्वतंत्रता हमारा जन्म सिद्ध अधिकार है” का उद्घोष करने वाले बाल गंगाधर तिलक। दूसरे महान सपूत थे, “आजाद हूं आजाद ही रहूंगा” का उदघोष करने वाले अमर क्रांतिकारी चंद्रशेखर आजाद। बाल गंगाधर तिलक कांग्रेस में गर्म दल के आधार स्तम्भ रहे और लोकमान्य तिलक के नाम से विख्यात हुए।
बीसवीं सदी के प्रारम्भ में भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन में एक मंच के रूप में कार्यरत कांग्रेस में स्पष्टतः दो गुट बन गए थे। एक नरम तो दूसरा गर्म दल कहलाता था। पहले के नेता गोपाल कृष्ण गोखले थे तो दूसरे के लोकमान्य तिलक। इतिहास में आगे चलकर लाल-बाल-पाल नामक जो त्रयी प्रसिद्ध हुई, उसके बाल यही बाल गंगाधर तिलक थे। वे एक प्रखर पत्रकार, महान गणितज्ञ, दार्शनिक और समाज सुधारक भी थे।
लोकमान्य तिलक का जन्म 23 जुलाई 1856 को रत्नागिरी (महाराष्ट्र) के एक साधारण किसान परिवार में हुआ था। बचपन से ही उनकी रुचि सामाजिक कार्यों में थी। वे भारत में अंग्रेजों के शासन को अभिशाप समझते थे और उसे उखाड़ फेंकने के लिए किसी भी मार्ग को गलत नहीं मानते थे। इन विचारों के कारण पूना में हजारों युवक उनके सम्पर्क में आये। इनमें चाफेकर बंधु प्रमुख थे। तिलक की प्रेरणा से उन्होंने पूना के कुख्यात प्लेग कमिश्नर रैण्ड का वध किया और तीनों भाई फांसी चढ़ गए।
सन् 1897 में महाराष्ट्र में प्लेग, अकाल और भूकम्प का संकट एक साथ आ गया। लेकिन, दुष्ट अंग्रेजों ने ऐसे में भी जबरन लगान की वसूली जारी रखी। इससे तिलक का मन उद्वेलित हो उठा। उन्होंने इसके विरुद्ध जनता को संगठित कर आंदोलन छेड़ दिया। नाराज होकर ब्रिटिश शासन ने उन्हें 18 महीने की सजा दी। तिलक ने जेल में अध्ययन जारी रखा और बाहर आकर फिर से आंदोलन में कूद गए।
तिलक एक अच्छे पत्रकार भी थे। उन्होंने अंग्रेजी में ‘मराठा’ और मराठी में ‘केसरी’ साप्ताहिक अखबार निकाला। इसमें प्रकाशित होने वाले विचारों से पूरे महाराष्ट्र और फिर देशभर में स्वतंत्रता और स्वदेशी की ज्वाला भभक उठी। युवक वर्ग तो तिलक का दीवाना हो गया। लोगों को हर सप्ताह केसरी की प्रतीक्षा रहती थी। अंग्रेज इसके स्पष्टवादी सम्पादकीय आलखों से तिलमिला उठे। बंग-भंग के विरुद्ध हो रहे आंदोलन के पक्ष में तिलक ने खूब लेख छापे। जब खुदीराम बोस को फांसी दी गई तो तिलक ने केसरी में उन्हों भावपूर्ण श्रद्धाजलि दी।
अंग्रेज तो उनसे चिढ़े ही हुए थे। उन्होंने तिलक को कैद कर छह साल के लिए बर्मा की माण्डले जेल भेज दिया। वहाँ उन्होंने ‘गीता रहस्य’ नामक ग्रंथ लिखा, जो आज भी गीता पर एक श्रेष्ठ टीका मानी जाती है। इसके माध्यम से उन्होंने देश को कर्मयोग की प्रेरणा दी।
तिलक समाज सुधारक भी थे। वे बाल विवाह के विरोधी और विधवा विवाह के समर्थक थे। धार्मिक और सामाजिक कार्यों में वे सरकारी हस्तक्षेप को पसंद नहीं करते थे। उन्होंने जनजागृति के लिए महाराष्ट्र में गणेशोत्सव और शिवाजी उत्सव की परम्परा शुरू की, जो आज विराट रूप ले चुकी है।
स्वतंत्रता आंदोलन में उग्रवाद के प्रणेता तिलक का मानना था कि स्वतंत्रता भीख की तरह मांगने से नहीं मिलेगी। अतः उन्होंने नारा दिया, “स्वराज्य हमारा जन्मसिद्ध अधिकार है और हम उसे लेकर ही रहेंगे।”
वे वृद्ध होने पर भी स्वतंत्रता के लिए भागदौड़ में लगे रहे। जेल की यातनाओं और मधुमेह की से उनका शरीर जर्जर हो चुका था। मुम्बई में अचानक वे निमोनिया से पीड़ित हो गए। अच्छे से अच्छे इलाज के बाद भी वे संभल नहीं सके और एक अगस्त1920 को मुम्बई में ही उन्होंने अंतिम सांस ली। आज वे हमारे मध्य नहीं है मगर देश की स्वतंत्रता के इतिहास में उनका नाम सदैव अमर रहेगा ।
सुरेश बाबू मिश्रा
(सेवानिवृत्त प्रधानाचार्य)