माँ भैरवी -नवरात्रों में मातारानी दस महाविद्याओं की ही पूजा की जाती हैं जिसमे से पांचवें दिन भैरवी देवी की पूजा करने का विधान हैं। इन्हें भगवान शिव के भैरव अवतार से समकक्ष होने के कारण भी भैरवी कहा गया।
माँ भैरवी के दो रूप माने जाते हैं तथा वे दोनों ही एक दूसरे से बिल्कुल भिन्न हैं। मुख्य रूप एकदम भयंकर व दुष्टों का नाश करने वाला हैं जो माँ काली के समान ही हैं। जिस प्रकार माँ काली का रूप अत्यंत भीषण व रक्तरंजित होता हैं ठीक उसी प्रकार माँ भैरवी का ही रूप हैं। दोनों के रूप को भिन्न नही माना जा सकता हैं। इसलिए माँ भैरवी को माँ काली भी कह दिया जाता हैं।
माँ के इस रूप में वे काले वर्ण में हैं जिनके केश खुले हुए हैं। साथ ही माँ के तीन नेत्र हैं तथा जीभ लंबी व बाहर निकली हुई है जिसमे से रक्त निकल रहा हैं। माँ के चार हाथ हैं जिनमें उन्होंने खड्ग, तलवार, राक्षस की खोपड़ी पकड़ी हुई हैं तथा एक हाथ अभय मुद्रा में है जो उनके भक्तों को अभय प्रदान करता है। माँ राक्षस की खोपड़ियों के आसन पर विराजमान हैं जो उनके रूप को और भी भीषण बनाता हैं।
माँ का दूसरा रूप मन को लुभाने वाला व अत्यंत सुनहरा है। इस रूप में माँ एक कमल के आसन पर विराजमान हैं जिनका वर्ण सुनहरा हैं। उनके इस रूप में सूर्य के समान तेज हैं जिनके सिर पर मुकुट हैं। माँ के केश खुले हुए हैं व तीन नेत्र हैं। उनके चार हाथ हैं जिनमे से दो में उन्होंने पुस्तक व जपमाला पकड़ी हुई हैं जबकि अन्य दो हाथ वरदान व अभय मुद्रा में हैं। माँ अपने इस रूप में भी गले में राक्षसों की खोपड़ियों की माला पहने हुई हैं।
भैरवी साधना मंत्र
ॐ ह्रीं भैरवी कलौं ह्रीं स्वाहा।।
माँ भैरवी की कथा
यह कथा बहुत ही रोचक हैं जो भगवान शिव व उनकी प्रथम पत्नी माता सती से जुड़ी हुई हैं। हालाँकि उनकी दूसरी पत्नी माता पार्वती माँ सती का ही पुनर्जन्म मानी जाती हैं। भैरवी महाविद्या की कहानी के अनुसार, एक बार माता सती के पिता राजा दक्ष ने विशाल यज्ञ का आयोजन करवाया था।
चूँकि राजा दक्ष भगवान शिव से द्वेष भावना रखते थे और अपनी पुत्री सती के द्वारा उनसे विवाह किये जाने के कारण शुब्ध थे, इसलिए उन्होंने उन दोनों को इस यज्ञ में नही बुलाया। भगवान शिव इस बारे में जानते थे लेकिन माता सती इस बात से अनभिज्ञ थी।
यज्ञ से पहले जब माता सती ने आकाश मार्ग से सभी देवी-देवताओं व ऋषि-मुनियों को उस ओर जाते देखा तो अपने पति से इसका कारण पूछा। भगवान शिव ने माता सती को सब सत्य बता दिया और निमंत्रण ना होने की बात कही। तब माता सती ने भगवान शिव से कहा कि एक पुत्री को अपने पिता के यज्ञ में जाने के लिए निमंत्रण की आवश्यकता नही होती है।
माता सती अकेले ही यज्ञ में जाना चाहती थी। इसके लिए उन्होंने अपने पति शिव से अनुमति मांगी किंतु उन्होंने मना कर दिया। माता सती के द्वारा बार-बार आग्रह करने पर भी शिव नही माने तो माता सती को क्रोध आ गया और उन्होंने शिव को अपनी महत्ता दिखाने का निर्णय लिया।
तब माता सती ने भगवान शिव को अपने 10 रूपों के दर्शन दिए जिनमे से पांचवीं माँ भैरवी देवी थी। मातारानी के यही 10 रूप दस महाविद्या कहलाए। अन्य नौ रूपों में क्रमशः काली, तारा, षोडशी, भुवनेश्वरी, छिन्नमस्ता, धूमावती, बगलामुखी, मातंगी व कमला आती हैं।
माँ भैरवी की पूजा करने से हमे उनके रूप के अनुसार दो तरह के लाभ मिलते हैं। पहले रूप के अनुसार हमे बुरी आदतों, शक्तियों व आत्माओं के प्रभाव से मुक्ति मिलती हैं। इसके अलावा यदि व्यक्ति को किसी तरह की शारीरिक कमजोरी है तो भी उसे माँ भैरवी के इस रूप की पूजा करनी चाहिए। माँ का यह रूप अपने भक्तों को सभी प्रकार के भय से मुक्ति प्रदान करता हैं और अभय प्रदान करता हैं।
माँ के दूसरे रूप से हमारे वैवाहिक जीवन या प्रेम जीवन में सुधार देखने को मिलता हैं। यदि आप एक अच्छे जीवनसाथी को खोज रहे हैं तो आपको माँ भैरवी के सुंदर रूप की पूजा करनी चाहिए। साथ ही यदि आपका विवाह हो चुका हैं तो उसके सुखमय रहने की भी प्रबल संभावना हैं।