भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने आज एक बार फिर एतिहासिक फैसला सुनाते हुए मुस्लिम महिलाओं को सम्मान से जीने का हक प्रदान कर दिया। ऐसा एक बार पहले भी हुआ था। इस बार शायरा बानों ने नारी अस्मिता की रक्षा के लिए सुप्रीम कोर्ट में गुहार लगायी थी, जबकि पिछली बार 1986 में शाहबानो तलाक के खिलाफ कोर्ट गयी थी। शायरा बानो भी जीती और तब शाहबानो भी जीती थीं। लेकिन दोनों बार में अंतर निजाम का है। इस बार का निजाम यानि केन्द्र सरकार शायरा बानो के साथ खड़ा है और मुल्ला मौलवियों के निशाने पर है। पिछली बार यानि शाह बानो के मामले में निजाम उस कोर्ट से जीती महिला के ही खिलाफ खड़ा हो गया था। तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी ने मुस्लिम तुष्टीकरण की राजनीति के चलते शाहबानो के बहाने वोटों की शतरंज पर नारी अस्मिता को ही दांव पर लगा दिया था। और इस तरह शाहबानो अपना केस सुप्रीम कोर्ट में जीतकर भी पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी के एक फैसले के कारण हार गई थी।
पूरा मामला 1978 का है, जब मध्यप्रदेश के इंदौर निवासी शाहबानो को उसके पति मोहम्मद खान ने तलाक दे दिया। पांच बच्चों की मां 62 वर्षीय शाहबानो ने गुजारा भत्ता पाने के लिए कानून की शरण ली। मामला सुप्रीम कोर्ट में पहुंचा और उस पर सुनवाई हुई। कोर्ट ने सुनवाई के बाद अपना फैसला सुनाते हुए शाहबानो के हक में निर्णय देते हुए मोहम्मद खान को गुजारा भत्ता देने का आदेश दिया।
इस बार की तरह ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड ने शाहबानो केस में सुप्रीम कोर्ट के फैसले का पुरजोर विरोध किया था। इस बार जहां पर्सनल लॉ बोर्ड ने मुस्लिम महिलाओं को कम अक्ल करार देते हुए यहां तक कह दिया कि महिलाओं में फैसले लेने की बुद्धि ही नहीं होती। वहीं शाहबानो के वक्त भी पर्सनल लॉ बोर्ड की अपनी दलीलें थीं। लेकिन भारतीय संविधान में समानता के अधिकार की संवाहक सुप्रीम कोर्ट ने शाहबानो के पक्ष में फैसला दिया। शाहबानो के कानूनी तलाक भत्ते पर देशभर में राजनीतिक बवाल मच गया।
मुस्लिम वोटों की खातिर तुष्टीकरण की पराकाष्ठा करते हुए राजीव गांधी सरकार ने मुस्लिम महिलाओं को मिलने वाले मुआवजे को निरस्त करते हुए एक साल के भीतर मुस्लिम महिला (तलाक में संरक्षण का अधिकार) अधिनियम, (1986) पारित कर सुप्रीम कोर्ट के फैसले को पलट दिया। भले ही राजीव गांधी ने ऐसा मुस्लिम धर्मगुरुओं के दबाव में आकर किया हो, लेकिन इस एक कानून से दांव पर लग गयी थी मुस्लिम महिलाओं की अस्मिता। मुस्लिम महिला (तलाक में संरक्षण का अधिकार) अधिनियम, (1986) पारित होने और सुप्रीम कोर्ट का फैसला पलटते से शाहबानो को तलाक देने वाला पति मोहम्मद गुजारा भत्ता के दायित्व से मुक्त हो गया। ऐसे में शाहबानो जिसके भत्ते की मांग को सुप्रीम कोर्ट ने भी मंजूरी दे दी थी, उसे अपने गुजारे के लिए भत्ता नहीं मिल सका।
हां, आपको याद दिला दें कि राजीव गांधी सरकार के तत्कालीन गृह राज्य मंत्री आरिफ मोहम्मद खान, स्वयं एक मुस्लिम होकर भी सरकार के खिलाफ खड़े हो गये थे। जब राजीव गांधी ने कानून बनाकर न्यायालय के फैसले को पलटा तो आरिफ मोहम्मद खान ने इसके विरोध में सरकार से इस्तीफ़ा तक दे दिया था। प्रसिद्द इतिहासकार राम चंद्र गुहा अपनी किताब ’इंडिया आफ्टर गांधी’ में इस बारे लिखा है कि तब आरिफ ने एक साक्षात्कार में कहा था कि ’पूरी दुनिया में सिर्फ भारतीय मुस्लिम महिलाएं ही ऐसी होंगी जिन्हें इस भत्ते से वंचित किया जा रहा है।’
खास बात ये भी है कि पूर्व राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी ने भी अपनी किताब ‘द टर्बुलेंट इयर्स :1980-1996’ में शाहबानो के मामले में तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी के फैसले को गलत करार दिया था।
शाह बानो की तरह ही इस मामले के भी कई न्यायिक और राजनीतिक पहलू हैं। इन्हें समझने की शुरुआत उन समीकरणों से करते हैं जिनके चलते शायरा बानो सर्वोच्च न्यायालय पहुंची हैं।
इसी तलाक की वैध्यता को चुनौती देते हुए शायरा सर्वोच्च न्यायालय पहुंची हैं। शायरा की याचिका का मुख्य पहलू यह भी है कि उनके माध्यम से ’मुस्लिम पर्सनल लॉ (शरियत) एप्लीकेशन एक्ट, 1937’ की धारा 2 की संवैधानिकता को भी चुनौती दी गई है। यही वह धारा है जिसके जरिये मुस्लिम समुदाय में बहुविवाह, ’तीन तलाक’ (तलाक-ए-बिद्दत) और ’निकाह-हलाला’ जैसी प्रथाओं को वैध्यता मिलती है। इनके साथ ही शायरा ने ’मुस्लिम विवाह विघटन अधिनियम, 1939’ को भी इस तर्क के साथ चुनौती दी है कि यह कानून मुस्लिम महिलाओं को बहुविवाह जैसी कुरीतियों से संरक्षित करने में सार्थक नहीं है।
शायरा का कहना है कि भारत के कई अन्य समुदायों ने बहुविवाह प्रथा को समय के साथ समाप्त करते हुए इसे दंडनीय माना है। वहीं, मुस्लिम समुदाय आज भी ऐसा नहीं मानता। आज देश की सभी महिलाओं को इस प्रथा से संवैधानिक सुरक्षा प्राप्त है, लेकिन मुस्लिम महिलाओं को इससे बचाया नहीं जा रहा है।
बहुविवाह प्रथा को ’सती प्रथा’ जितना ही घातक बताते हुए याचिका में कहा गया है कि इससे मुस्लिम महिलाओं को सिर्फ नैतिक या भावनात्मक नुकसान ही नहीं बल्कि आर्थिक और स्वास्थ्य संबंधी नुकसान भी हो रहे हैं। सर्वोच्च न्यायालय के ही कई फैसलों का हवाला देते हुए याचिका में कहा गया है कि बहुविवाह प्रथा को उसी तरह प्रतिबंधित कर दिया जाना चाहिए जैसे कभी सती प्रथा को किया गया था।
शायरा का कहना है कि पारंपरिक तौर पर भारत में कई अन्य समुदायों में भी बहुविवाह प्रथा का चलन रहा है, लेकिन समय के साथ सभी ने इस प्रथा को समाप्त कर दिया। याचिका में सरला मुद्गल केस का हवाला देते हुए कहा गया है कि ’इसाई समुदाय में 1872 के अधिनियम के तहत बहुविवाह को दंडनीय माना गया है, पारसियों में 1936 के अधिनियम के तहत यह दंडनीय है और हिन्दू, बौध, सिख तथा जैनियों में 1955 के अधिनियम के अनुसार बहुविवाह दंडनीय है। लेकिन 1939 का ’मुस्लिम विवाह विघटन अधिनियम’ बहुविवाह को दंडनीय नहीं मानता। लिहाजा, जहां भारत की सभी महिलाओं को बहुविवाह जैसी प्रथा से संवैधानिक सुरक्षा प्राप्त है, वहीँ मुस्लिम महिलाओं को आज भी इस प्रथा से बचाया नहीं जा रहा है।’ याचिका में मांग की गई है कि बहुविवाह जैसी प्रथा को समय की जरूरत और सार्वजनिक व्यवस्था तथा स्वास्थ्य को ध्यान में रखते हुए समाप्त कर दिया जाना चाहिए।
तीन तलाक के बारे में याचिका में लिखा गया है, ’इस प्रथा के चलते महिलाओं को संपत्ति की तरह समझा जाता है। यह प्रथा न सिर्फ मानवाधिकारों और लैंगिक समानता के विरुद्ध है बल्कि कई प्रख्यात विद्वानों के अनुसार यह इस्लामी आस्था का अभिन्न हिस्सा भी नहीं है। सऊदी अरब, पकिस्तान और इराक जैसे कई इस्लामिक देशों ने भी इस प्रथा पर पूर्ण या आंशिक प्रतिबंध लगा दिया है, लेकिन भारतीय समाज में यह आज भी मौजूद है और भारतीय मुस्लिम महिलाओं को इसके दुष्परिणाम भुगतने पड़ रहे हैं।’ याचिका में कुछ इस्लामिक विद्वानों के हवाले से यह भी कहा गया है कि ’कुरआन’ में भी इस तरह के तलाक का जिक्र ही नहीं मिलता। बल्कि ’कुरआन’ के अनुसार तलाक के वे ही तरीके सही हैं जिनमें तलाक के पुख्ता होने से पहले पुनः विचार करने की संभावनाएं हों।
शायरा के अनुसार ’तलाक-ए-बिद्दत’ और पुनर्विचार का मौका दिये बिना ही तलाक देने जैसी प्रथाएं मुस्लिम महिलाओं के मौलिक अधिकारों के भी खिलाफ हैं। ऐसी प्रथाएं उनके सम्मान से जीने के अधिकार का हनन कर रही हैं। याचिका में कुछ ऐसे भी मामलों का जिक्र किया गया है जिनमें किसी मुस्लिम महिला को स्काइप, फेसबुक या एक एसएमएस करके ही तलाक दे दिया गया था। उड़ीसा की रहने वाली नगमा बीबी का उदाहरण भी याचिका में दिया गया है. नगमा के पति ने शराब के नशे में उसे तलाक दे दिया था। अगली सुबह उसे अपने किये का पछतावा भी हुआ लेकिन स्थानीय धर्मगुरुओं के अनुसार उनका तलाक हो चुका था। नगमा को उसके बच्चों के साथ वापस मायके भेज दिया गया और कहा गया कि वो दोबारा अपने पति के साथ तभी रह सकती है जब ’निकाह-हलाला’ पूरा करें। ऐसे ही अन्य उदाहरण देते हुए याचिका में इस तरह के तलाक पर रोक लगाने की मांग की गई है।
याचिका में सरकार और विधायिका पर भी सवाल उठाते हुए कहा गया है कि समान नागरिक संहिता आज के समाज की जरूरत है लेकिन सरकार लगातार इससे बचना चाहती है।
याचिका के अनुसार निकाह-हलाला वह प्रथा है जिसके अंतर्गत कोई तलाकशुदा मुस्लिम महिला यदि अपने पति से पुनः शादी करना चाहती है तो पहले उसे किसी अन्य व्यक्ति से शादी करनी होती है। इसके बाद जब यह दूसरा व्यक्ति भी उसे तलाक दे, तभी वह अपने पहले पति से पुनः शादी कर सकती है। इस प्रथा को महिलाओं के लिए सबसे बुरा बताते हुए याचिका में कहा गया है कि यह प्रथा एक तरह से महिलाओं के बलात्कार की अनुमति देती है। कोई व्यक्ति यदि नशे में भी अपनी पत्नी को एकतरफा तलाक दे देता है तो उस महिला को या तो हमेशा के लिए अपने पति से अलग होना पड़ता है या साथ रहने से पहले किसी अन्य व्यक्ति से शादी करने को मजबूर होना पड़ता है।
इन सभी प्रथाओं को मौलिक अधिकारों का हनन मानते हुए और शायरा ने इन्हें असंवैधानिक घोषित करने की मांग की है। उन्होंने अपनी याचिका में यह तर्क भी दिया है कि भारतीय संविधान का अनुछेद 25 जो धार्मिक स्वतंत्रता की बात करता है, उसकी भी कुछ सीमाएं हैं। शायरा का कहना है कि यह अनुच्छेद तभी तक सही कहा जा सकता है जब तक यह अन्य मौलिक अधिकारों का हनन ना करे और मानवाधिकारों के खिलाफ न हो।
याचिका में कहा गया है कि समान नागरिक संहिता आज के समाज की जरूरत है लेकिन सरकार लगातार इससे बचना चाहती है। सर्वोच्च न्यायालय स्वयं भी बीते कुछ समय से लगातार ’समान नागरिक संहिता’ को लागू करने के लिए सरकार को इशारे करता रहा है। ऐसे में शायरा की याचिका ने न्यायालय को एक और मौका दे दिया।
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