पिछले लेख में जैसा कि मैंने जिक्र किया था विषैले वामपंथ का, और आज पिछले 4-5 दिनों से हम सबकी टीवी स्क्रीन पर जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के छात्रों के हंगामे एवं बवाल की खबरें लगातार चल रही हैं। यह वामपंथ का नंगा नाच है एवं आइए समझते हैं कि जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय की मूल सोच क्या है ?
जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय को पंडित नेहरू के विचारों को आगे बढाने एवं उन पर शोध करने के लिए ही स्थापित किया गया था। तो क्या पंडित नेहरू असल में कामरेड थे?
यहाँ पर मैं लेख को 2 भाग में बांटना चाहूंगा ताकि पाठकों को विश्वविद्यालय की स्थापना के मूल सोच एवं वामपंथ को समझने में आसानी रहे।
प्रथम भाग में संक्षेप में इतिहास के उन पन्नो के बारे में पाठकों को अवगत कराना चाहता हूं जो पंडित नेहरू के व्यक्तिगत विचारों पर वामपंथ के प्रभाव को दर्शाता है-
भाग 1
सीताराम गोयल ने अपनी पुस्तक “ळमदमेपे ंदक ळतवूजी वि छमीतनपेउ“ में लिखा है कि कॉमिन्टर्न नेटवर्क में पंडित नेहरू 1924 से 1925 में एम एन रॉय की पहली पत्नी एवलिन राय के मार्फत शामिल हुए थे। एम.एन.रॉय एवं एवलिन रॉय ने पेरिस में मशहूर वामपंथी हेनरी बारबाडोस के साथ “ब्वउउपज -च्तव-भ्पदकन“ नामक संगठन की रचना की थी। 1925 में अपनी पत्नी श्रीमती कमला नेहरू के इलाज के लिए यूरोप में पंडित नेहरू ने अपनी आत्मकथा में स्वीकार भी किया है “ जिस विचार के लिए मैं भारत से बाहर निकला था वहां पहुंच कर मैनेज का स्वागत किया मेरा मन अँधेरे में घिरा था और मुझे कोई भी स्पष्ट रास्ता नहीं सूझ रहा था।“
ब्वउउपदजमते द्वारा फरवरी 1927 में ब्रुसेल्स में आयोजित सम्मेलन में भी पंडित नेहरू शामिल हुए थे। जिसकी सूचना वहां पहुंचकर उन्होंने कांग्रेस पार्टी को दी एवं कांग्रेस पार्टी के आधिकारिक प्रतिनिधि के रूप में शामिल हुए।
यहां पंडित नेहरू के विचारों को समझना एवं जानना इसलिए आवश्यक है क्योंकि जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय की स्थापना उनके विचारों को आगे बढ़ाने एवं उनपर शोध करने के लिए की गई थी। तो क्या पंडित नेहरू वामपंथी थे? इस पर बात करेंगे आगे के लेखों में।
भाग 2
वामपंथ की बौद्धिक खुराक उसको मार्क्स, लेनिन ,स्टालिन से मिलती है। स्टालिन के 1936 के “स्टालिन कांस्ट्रेशन“ में “ैमसि क्मजमतउपदंजपवद त्पहीज“ से प्रभावित होकर ही आज एवं आने वाले कल में भी आपको “टुकड़े-टुकड़े“ गैंग हमेशा “आज़ादी“ के नारे लगाते मिलेगा।
इसका अर्थ यह है कि जब भी कोई प्रांत राष्ट्र से अलग होना चाहे तो स्वविवेक पर अलग हो सकता है। इसके पीछे वामपंथी घिनौनी सोच ये है कि जितने छोटे प्रांत होंगे उन पर वामपंथ एवं समाजवादी सोच की स्थापना करना उतना ही आसान होगा। शासन के लिए हिंसा का उपयोग हमेशा से वामपंथ में जायज रहा है उदाहरण के लिए बंगाल एवं केरल।
हर वो व्यक्ति या सोच या संगठन इनका शत्रु है जो एक राष्ट्र, एक समाज एवं एकता की बात करता है।
तानाशाह स्टालिन की “रेड आर्मी“ जोकि रूस में तत्कालीन विरोधियों के नरसंहार के लिए कुख्यात है, उसी हिंसा से जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के वामपंथी, नक्सल एवं अन्य वामपंथी अपनी खुराक लेते हैं। भारत ही नहीं दुनिया भर के वामपंथियों की कार्यप्रणाली यही है। शासन के विरुद्ध संघर्ष एवं हिंसा तथा समाज को मानसिक रूप से नशे एवं सेक्स के माध्यम से अपने साथ मिलाना।
भारत के परिपेक्ष में अगर बात करें तो समाज की मान्यताओं के विरूद्ध, संस्कार के विरूद्ध, नयी उम्र के बच्चों को जब छोटे कपड़ों में युवती दिखाई देती है तो आकर्षित होना स्वाभाविक है। नारीवाद के नाम पर युवतियों को उन्मुक्त सेक्स की तरफ आकर्षित करके यह संघर्ष गंदा खेल जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में खेला जा रहा है, ऐसा आरोप जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय पर लगते हैं।
छोटे शहर का युवक टीवी पर फिल्मों में जब महिलाओं को छोटे वस्त्रों या बिना वस्त्रों में देखता है परन्तु व्यक्तिगत अनुभव विश्वविद्यालय में जाते ही कुछ खास समूह के साथ रहने पर मिले तो क्या परिणाम होगा? यहां पर हम अच्छी तरह समझ सकते हैं। यही बात अगर स्त्रियों के सम्बन्ध में करें तो उन्मुक्त सेक्स की तरफ़ नारीवाद के नाम पर आकर्षित करना कोई बड़ी बात नहीं रह गई है।
पीढ़ियों को आजादी के नाम पे, शासन सत्ता वर्ग के संघर्ष के नाम पर बर्बाद कर रहा है ये वामपंथ। जेनयू के गंगा ढाबे पर यही माहौल मिलता है ऐसा लोग कहते हैं। दूसरी बात यह है कि अतीत में सरकारों द्वारा किए गए भ्रष्टाचार एवं कुकर्मों के कारण समाज में कहीं न कहीं सरकारों एवं व्यवस्था के लिए रोष रहता है जिसका फ़ायदा वामपंथ शासन के विरूद्ध संघर्ष में उठाता है।आज इसके शत्रु नरेंद्र दामोदरदास मोदी है तो कल कोई और होगा क्योंकि जो भी राष्ट्र की संप्रभुता की बात करेगा, जो राष्ट्रवाद की बात करेगा वहीं वामपंथ का शत्रु है।
क्या पंडित नेहरू असल में कामरेड नेहरू थे ?
कैसे नारीवाद के नाम पर आज महिलाओं का उपयोग वामपंथ अपने प्रचार प्रसार के लिए कर रहा है एवं समाज की मान्यताओं, धार्मिक एवं सांस्कृतिक आस्थाओं पर चोट कर रहा है जानेंगे अगले लेख में।
(लेखक राष्ट्रवादी विचारक एवं भाजपा ओवरसीज, दुबई के पूर्व महासचिव हैं। साथ ही सिंगापुर, दक्षिण अफ्रीका एवं खाड़ी देशों में सामाजिक मुद्दों को लेकर यात्रा कर चुके हैं।)
डिस्क्लेमर : ये लेखक के अपने विचार हैं। बरेलीलाइव का उनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।