दीपावली पांच पर्वों का त्योहार है। इसमें धनतेरस, नरक चतुर्दशी, दीपावली, गोवधर्न पूजा और यम द्वितीया यानी भाई दूज आदि त्योहार मनाए जाते हैं। दूसरे अर्थों में देखें, तो दीपावली खुशी, आनंद का अनुभव और धन-धान्य, संपन्नता का उत्सव है। घरों की लिपाई-पुताई, साफ-सफाई होती है। खील-बताशे लाए जाते हैं। मिठाई ली और दी जाती है। दीपक और लट्टू जलाए जाते हैं, बच्चे पटाखे चलाते हैं। मित्रता का लेन-देन होता है, उपहारों का आदान-प्रदान किया जाता है। रात भर लक्ष्मी जी की प्रतीक्षा की जाती है कि वह अब आईं कि तब आईं! देश के अलग-अलग हिस्सों में रहने वाले अपने-अपने तरीके से दिवाली मनाते हैं। मसलन, बुंदेलखंड में दिवाली पर ‘दिवारी’ लोक नृत्य किया जाता है, तो उत्तराखंड में कुछ आदिवादी इसे पूरे एक महीने तक मनाते हैं।
दूसरी ओर, कुछ के लिए नया बहीखाता बनाने, नई दुकान खोलने, नया कारोबार शुरू करने या यूं कहें कि नई संपन्नता की कामना का नाम है दिवाली! दीपावली लक्ष्मी जी का पूजन-अर्चन और अपने धन, अपनी पूंजी, अपनी कमाई का पूजन और प्रदर्शन है। वह आशा है, भविष्य है और अवसाद व निराशा की शत्रु है, जिसे मनाकर हम अपने अच्छे दिनों की कामना करते हैं। दीपावली एक अहसास, अनुभव का नाम है, उत्साह और उमंग का नाम है।
आध्यात्मिक रूप से देखें, तब भी रौशनी का यह उत्सव अच्छाई की ओर ले जाने वाले रास्तों को रौशन करने का उत्सव है। जरूरी नहीं कि बुराई किसी राक्षस के रूप में ही आए। बेचैनी, अवसाद, निराशा, कुंठा आदि किसी दानव की अपेक्षा कहीं अधिक खतरनाक और नुकसानदेह हो सकती हैं। इन विकारों को दूर करने के लिए जिंदगी में चाहिए रौशनी और दीपावली का पर्व यही याद दिलाने के लिए है।
इस दिन का आध्यात्मिक महत्व यह है कि इस दिन से शुरू होने वाले अगले चरण को सबसे चुनौतीपूण हिस्सा माना जाता है। इसलिए हर जगह रौशनी की जाती है, क्योंकि यह सबसे अंधकारमय समय होता है। इन दिन देवी काली या चामुंडा या भैरवी- इस स्त्रैण ऊर्जा ने एक दानवराज का संहार किया। आखिर सभी दानव भी तो अंधकार में ही होते हैं। आज तक किसी भी दानव को प्रकाश में नहीं देखा गया। अमावस्या का अंधेरा स्त्री प्रकृति को निराश करता है। ऐसी अवस्था में वह चाहती है कि उसके आसपास की हर चीज रौशन हो, अन्यथा वह निराशा में चली जाती है।
कथाएं और भी हैं। मसलन, एक राजा ने एक लकड़हारे पर प्रसन्न होकर उसे एक चंदन की लकड़ी का जंगल उपहार स्वरुप दिया, मगर लकड़हारा जंगल से चंदन की लकड़ियां को जलाकर भोजन बनाने के लिये प्रयोग करता था। राजा को अपने गुप्तचरों से यह बात पता चली, तो उसकी समझ में आ गया कि धन का उपयोग बुद्धिमान व्यक्ति ही कर पाता है। यही कारण है कि लक्ष्मी जी और गणेश जी की एक साथ पूजा की जाती है, ताकि व्यक्ति को धन के साथ उसे उपयोग करने की योग्यता भी आये।
दूसरी कथा यह है कि जब 14 साल का वनवास काटकर और लंका नरेश रावण का वध कर राजा राम वापस आये, तो इस खुशी में अयोध्या वासियों ने अयोध्या नगरी को दीयों से सजाया और वह दीयों की रौशनी में जगमगा उठी। तीसरी कथा कहती है कि भगवान कृष्ण ने दीपावली से एक दिन पहले नरकासुर का वध किया था। इसी कारण बुराई पर अच्छाई की जीत के प्रतीक के रूप में दीपावली पर्व मनाया जाता है।
एक अन्य कथा के अनुसार, एक बार देवताओं के राजा इन्द्र से डर कर राक्षसराज बलि कहीं जाकर छुप गए। देवराज इन्द्र दैत्यराज को ढूंढ़ते-ढूंढ़ते एक खाली घर में पहुंचे। वहां बलि गधे के रूप में छुपे हुए थे। दोनों की आपस में बातचीत होने लगी। उन दोनों की बातचीत अभी चल ही रही थी कि उसी समय दैत्यराज बलि के शरीर से एक स्त्री बाहर निकली। देवराज इन्द्र के पूछने पर स्त्री ने कहा, ‘मैं देवी लक्ष्मी हूं। मैं स्वभाववश एक स्थान पर टिककर नहीं रहती हूं। परन्तु मैं उसी स्थान पर स्थिर होकर रहती हूं, जहां सत्य, दान, व्रत, तप, पराक्रम तथा धर्म रहते हैं। जो व्यक्ति सत्यवादी होता है, ब्राह्मणों का हितैषी होता है, धर्म की मर्यादा का पालन करता हैं, उसी के यहां मैं निवास करती हूं।’ इस प्रकार यह स्पष्ट है कि लक्ष्मी जी केवल वहीं स्थायी रूप से निवास करती हैं, जहां अच्छे गुणी व्यक्ति निवास करते हैं।
इन सभी कथाओं का मूल सार एक ही है कि विकारों को दूर करने यानी उमंग-उल्लास का पर्व है दीपावली। लेकिन भूमंडलीकरण के दौर के इस हाईटेक युग में प्रकाश का यह पर्व भी हाईटेक हो गया है। परंपरागत मिट्टी के दीयों की प्रासंगिकता समाप्त होती जा रही है, क्योंकि इनका स्थान अब लड़ियों और बिजली के दीयों ने ले लिया है। लोग मिट्टी के दीयों की बजाय बिजली से जगमगाने वाली झालरें लेना अधिक पसंद करने लगे हैं। इससे मिट्टी के दीये बनाने वाले लोग अब परंपरागत व्यवसाय को छोड़कर दूसरे कार्य अपनाने पर मजबूर हो रहे हैं और अपने बच्चों को भी इससे दूर ही रहने की सलाह देते हैं। दरअसल, समय के साथ-साथ त्योहारों को मनाने का तरीका भी बदलता गया है। विदेशी तकनीकें हमारे त्योहार और सदियों से चली आ रही परंपराओं पर हावी होती गई हैं। बात चाहे दिवाली की हो, करवा चौथ की हो या किसी अन्य पर्व की। हर चीज में आधुनिकता झलक रही है। कुछ जगहों पर जहां यह सही लगता है, वहीं कुछ जगहों पर अपनी जड़ों से अलग होना हमें खलता भी है।
मिट्टी के दीयों की उदासी अब काशी के पटाखा उद्योग पर भी पड़ती नजर आ रही है। वजह, पटाखों की बिक्री बंद, तो यह उद्योग ठप, 80 लाख रोजगार ठप। दिल्ली के सदर बाजार का पटाखों का थोक बाजार भी ठप। यह ठीक है कि आतिशबाजी दीपावली की परंपरा में शामिल नहीं थी, लेकिन उल्लास-उमंग के अवसर पर बच्चों को ग्रीन दिवाली मनाने की सलाह देना भी तो उनके बचपन से आनंद को छीनना है।
दरअसल, ‘नए भारत’ में बाजार पूरी तरह हावी है, विशेषकर विदेशी बाजार, माने त्योहारों पर ‘खरीदो और बस खरीदो’ की परंपरा चल निकली है। जाहिर है, ‘न्यू इंडिया’ की इस ‘नई दिवाली’ पर भी आप खरीदो, अमेजन से खरीदो, फ्लिपकार्ट से खरीदो, क्विकर से खरीदो, ओएलक्स से खरीदो। टीवी खरीदो, स्मार्ट फोन खरीदो, मकान खरीदो, लोन लो, कपड़े खरीदो, लेकिन मिठाई मत खरीदो, क्योंकि वह पैक्ड नहीं है। हां, चॉकलेट जरूर खरीदो। बाकी एक से एक बढ़िया महंगी कार खरीदो।
देश का गरीब क्या खरीदे, इससे बाजार का कोई लेना-देना नहीं। आखिर वह उसका अच्छा ग्राहक भी तो नहीं है। नीति-नियंताओं के लिए वह देश का अंग है, मगर तब भी वह उनके लिए केवल वोट बैंक है। आखिर वह दिन कब आएगा, जब गरीब भी अपनी दिवाली पूरे उत्साह, पूरी उमंग के साथ मनाएगा? क्या सबल वर्ग और अभिभावक कहे जाने वाले राजनेता निर्बल वर्ग में इस उत्साह, इस उमंग को लाने के लिए कुछ विचारेंगे?
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